Tuesday, October 22, 2013

kumar vishwas - 8 (कुमार विश्वास ८)



अगर हांथो से उम्मीदों का शीशा छूट जाता हैं
पल भर में ख्वाबों से भी पीछा छूट जाता हैं 
अगर हम लोग थोड़ी देर लड़ना भूल जाये
तो पल भर में भी सियासद्दनो का पसीना छूट जाता हैं

तुम्हारा ख्वाब जैसे गम ,को अपनाने से डरता है

हमारी आँख का आँसूं, ख़ुशी पाने से डरता है

अजब हैं लब्ज तै गम भी , जो मेरा दिल अभी कल तक

तेरे आने से जाने से डरता था ,वो अब आने से डरता है

खुद से भी मिल न सको इतने पास मत होना

इश्क तो करना पर देवदास मत होना
देखना ,चाहना , मांगना या खो देना
ये सारे खेल हैं इनमें उदास मत होना

ये चादर सुख की मौला क्यूँ सदा छोटी बनाता है

सिरा कोई भी थामो दूसरा खुद छूट जाता हैं

तुम्हारे पास था तो मैं ज़माने भर में रुशवा था

मगर अब तुम नहीं हो तो ज़माना साथ गता है


कोई पत्थर की मूरत है ,किसी पत्थर में मूरत है

लो हमने देख ली दुनिया जो इतनी खूबसूरत हैं

ज़माना अपनी समझे पर मुझे अपनी समझ ये है

तुम्हें मेरी ज़रुरत हैं ,मुझे तेरी ज़रुरत है

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