Saturday, September 28, 2013

धीरे-धीरे चल री पवन




धीरे-धीरे चल री पवन मन आज है अकेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

धीरे चलो री आज नाव ना किनारा है
नयनो के बरखा में याद का सहारा है
धीरे-धीरे निकल मगन-मन, छोड़ सब झमेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

होनी को रोके कौन, वक्त से बंधे हैं सब
राह में बिछुड़ जाए, कौन जाने कैसे कब
पीछे मींचे आँख, संजोये दुनिया का रेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

तेज जो चले हैं माना दुनिया से आगे हैं
किसको पता है किन्तु, कितने अभागे हैं
वो क्या जाने महका कैसे, आधी रत बेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

                            -कुमार विश्वास 
 

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