Saturday, September 28, 2013

हार गया तन मन पुकारकर तुम्हें



   हार गया तन मन पुकारकर तुम्हें .
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 

जिस पल हल्दी लिपि होगे तन पर माँ ने 
जिस पल सखियों ने सौंपी होंगी सौगातें 
ढोलक की थापों में, घुंघरू की रुनाझां में 
घुल कर फ़ैली होंगी घर में प्यारी बातें 

उस पल मीठी सी धून 
घर के आँगन में सुन 
रोये मन - चौसर पर हारकर तुम्हें 
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 

कल तक जो हमको तुमको मिलवा देती थीं 
उन सखियों के प्रश्नों ने टोका तो होगा 
साजन की अंजुरी पर, अंजुरी काँपी होगी
मेरी सुधियों ने रास्ता रोका तो होगा

उस पल सोचा मन में
आगे अब जीवन में 
जी लेंगे हंसकर, बिसार कर तुम्हें 
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 

कल तक जिन गीतों को तुम अपना कहते थे
अखबारों में पढ़कर कैसा लगता होगा
सावन की रातों में, साजन की बाहों में 
तन तो सोता होगा पर मन जागता होगा

उस पल के जीने में 
आंसू पी लेने में 
मरते हैं, मन ही मन, मार कर तुम्हें 
कितने एकाकी  हैं प्यार कर तुम्हें 

हार गया तन मन पुकार कर तुम्हें 
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 

      -कुमार विश्वास 




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